यह सुनकर ऋषि बोले- हे देवकी! यह पुनीत
उपवास भादों भाद्रपद के महीने में शुक्लपक्ष की सप्तमी के दिन किया जाता
है। उस दिन ब्रह्ममुहूर्त में उठकर किसी नदी अथवा कुएं के पवित्र जल में
स्नान करके निर्मल वस्त्र पहिनने चाहिए। श्री शंकर भगवान तथा जगदम्बा
पार्वती जी की मूर्ति की स्थापना करें। इन प्रतिमाओं के सम्मुख सोने, चांदी
के तारों का अथवा रेशम का एक गंडा बनावें उस गंडे में सात गांठें लगानी
चाहिए। इस गंडे को धूप, दीप, अष्ट गंध से पूजा करके अपने हाथ में बांधे और
भगवान शंकर से अपनी कामना सफल होने की प्रार्थना करें।
तदन्तर सात पुआ बनाकर भगवान को भोग लगावें
और सात ही पुवे एवं यथाशक्ति सोने अथवा चांदी की अंगूठी बनवाकर इन सबको एक
तांबे के पात्र में रखकर और उनका शोडषोपचार विधि से पूजन करके किसी
सदाचारी, धर्मनिष्ठ, सुपात्र ब्राह्मण को दान देवें। उसके पश्चात सात पुआ
स्वयं प्रसाद के रूप में ग्रहण करें।
इस प्रकार इस व्रत का पारायण करना चाहिए।
प्रतिसाल की शुक्लपक्ष की सप्तमी के दिन, हे देवकी! इस व्रत को इस प्रकार
नियम पूर्व करने से समस्त पाप नष्ट होते हैं और भाग्यशाली संतान उत्पन्न
होती है तथा अन्त में शिवलोक की प्राप्ति होती है।
हे देवकी! मैंने तुमको सन्तान सप्तमी का
व्रत सम्पूर्ण विधान विस्तार सहित वर्णन किया है। उसको अब तुम नियम पूर्वक
करो, जिससे तुमको उत्तम सन्तान पैदा होगी। इतनी कथा कहकर भगवान आनन्दकन्द
श्रीकृष्ण ने धर्मावतार युधिष्ठिर से कहा कि – लोमष ऋषि इस प्रकार हमारी
माता को शिक्षा देकर चले गए। ऋषि के कथनानुसार हमारी माता देवकी ने इस व्रत
को नियमानुसार किया जिसके प्रभाव से हम उत्पन्न हुए।
यह व्रत विशेष रूप से स्त्रियों के लिए
कल्याणकारी है परन्तु पुरुषों को भी समान रूप से कल्याण दायक है। सन्तान
सुख देने वाला पापों का नाश करने वाला यह उत्तम व्रत है जिसे स्वयं भी करें
तथा दूसरों से भी करावें। नियम पूर्वक जो कोई इस व्रत को करता है और भगवान
शंकर एवं पार्वती की सच्चे मन से आराधना करता है निश्चय ही अमरपद पद
प्राप्त करके अन्त में शिवलोक को जाता है।
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