दानवीर कर्ण

 दानवीर कर्ण


कर्ण कुंती का पुत्र था| पाण्डु के साथ कुंती का विवाह होने से पहले ही इसका जन्म हो चुका था| लोक-लज्जा के कारण उसने यह भेद किसी को नहीं बताया और चुपचाप एक पिटारी में रखकर उस शिशु को अश्व नाम की नदी में फेंक दिया था| इसके जन्म की कथा बड़ी विचित्र है|


राजा कुंतिभोज ने कुंती को पाल-पोसकर बड़ा किया था| राजा के यहां एक बार महर्षि दुर्वासा आए| कुंती से उनका बड़ा सत्कार किया और जब तक वे ठहरे, उन्हीं की सेवा-सूश्रुषा में रही| इसकी इस श्रद्धा-भक्ति से प्रसन्न होकर महर्षि ने उसे वार दिया कि वह जिस देवता को मंत्र पढ़कर बुलाएगी वही आ जाएगा और उसको संतान भी प्रदान करेगा| कुंती ने नादानी के कारण महर्षि के वरदान की परीक्षा लेने के लिए सूर्य नारायण का आवाहन किया| बीएस उसी क्षण सूर्यदेव वहां आ गए| उन्हीं के सहवास के कारण कुंती के गर्भ से कर्ण का जन्म हुआ| जब पिटारी में रखकर इस शिशु को उसने फेंक दिया, तो वह पिटारी बहती हुई आगे पहुंची| वहां अधिरथ ने कौतूहलवश उसे उठा लिया और खोलकर देख तो उसमें एक जीवित शिशु देखकर वह आश्चर्य करने लगा|


अधिरथ उस शिशु की निरीह अवस्था पर करुणा करके उसे अपने घर ले आया और उसका पालन-पोषण करने लगा| उसने उसे अपनी संतान समझा| बालक के शरीर पर कवच-कुण्डल देखकर उसको और भी अधिक आश्चर्य हुआ और तभी उसे लगा कि वह बालक कोई होनहार राजकुमार है| उसने उसका नाम वसुषेण रखा| वसु का अर्थ है धन| कवच, कुण्डल रूपी धन उसके पास था| विधाता ने ही उसको इसे दिया था, इसलिए उसका नाम वसुषेण उचित ही था|


वसुषेण जब कुछ बड़ा हुआ, तो उसने शास्त्रों का अध्ययन करना आरंभ कर दिया| वह सूर्य का उपासक था| प्रात:काल से लेकर संध्या तक वह सूर्य की उपासना ही किया करता था| दानी भी बहुत बड़ा था| उपासना के समय कोई भी आकर उससे जो कुछ भी मांगता, वह बिना हिचकिचाए उसको दे देता था| अमूल्य से अमूल्य वस्तु से उसको मोह नहीं था| उसका गौरव तो दानवीर कहलाने में था और अपने कृत्यों से उसने वास्तव में यह सिद्ध भी कर दिया कि वह दानवीर था| उसके समान दानी कौरवों और पाण्डवों में और कोई नहीं था| उसका परिचय तो हमें उस समय मिलता है, जब इंद्र ब्राह्मण का वेश धारण करके उसके पास उसकी अमूल्य निधि कवच-कुण्डल मांगने गया था| उस समय कर्ण ने देवराज का स्वागत किया था और सहर्ष अपने कवच-कुण्डल उतारकर दे दिए थे|


दान करते समय अपने हित या अहित विचार वह नहीं करता था| यद्यपि सूर्य भगवान पहले उसे मना कर चुके थे कि वह इन कवच-कुण्डलों को किसी को भी न दे, लेकिन दानवीर कर्ण किसी याचक को निराश करके वापस लौटाना तो जानता ही नहीं था| कर्ण के इस साहस के कारण ही उसका नाम वैकर्तन पड़ा था| यदि इस कवच-कुण्डलों को वह नहीं देता तो कोई भी योद्धा उसे युद्ध में परास्त नहीं कर सकता था| इंद्र ने अर्जुन के हित के लिए ही इनको मांगा था, क्योंकि इनके बिना अर्जुन कभी भी उसे नहीं हरा सकता था| फिर भी उसके इस अद्वितीय गुण से प्रभावित होकर इंद्र ने उसको एक पुरुषघातिनी अमोघ शक्ति दी| उस शक्ति से सामने का योद्धा किसी भी हालत में जीवित नहीं बच सकता था और उसको कर्ण ने अर्जुन के लिए रखा था, लेकिन श्रीकृष्ण ने चाल चली और कर्ण की उस शक्ति को घटोत्कच पर चलवाकर अर्जुन के जीवन पर आए इस खतरे को सदा के लिए मिटा दिया|


घटोत्कच, जो आकाश में विचरण करके कौरवों पर अग्नि की वर्षा कर रहा था और जिसने एक बार तो सारी सेना को पूरी तरह विचलित कर डाला था, शक्ति लगते ही निर्जीव होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा|


धनुर्विद्या में कर्ण अर्जुन के समान ही कुशल था| एक बार जब महाराज धृतराष्ट्र की आज्ञा से कौरव-पाण्डवों की अस्त्र-शिक्षा की परीक्षा के लिए एक समारोह किया गया था, तो अर्जुन ने अपने अस्त्र-शिक्षा के कौशल से सबको चकित कर दिया था| उसने ऐसी-ऐसी क्रियाएं कर दिखाई थीं| कि किसी भी योद्धा की हिम्मत नहीं होती थी कि उसका जवाब दे सके| एक विजेता की तरह के कौशल दिखाकर वह प्रशंसा लूट रहा था| दुर्योधन उस समय हत्प्रभ-सा होकर चुपचाप बैठा था| अर्जुन का-सा कौशल दिखाना उसके सामर्थ्य के भी बाहर था| उसी समय कर्ण वहां आ पहुंचा और उसने मैदान में आकर अर्जुन को ललकारा, "अर्जुन ! जिस कौशल के बल पर तू यहां सबको चकित कर रहा है और सभी से प्रशंसा लूट रहा रहा है, उसे मैं भी करके दिखा सकता हूं|"


यह कहकर उसने धनुष पर बाण चढ़ाकर वही सबकुछ कर दिखाया, जो अर्जुन ने किया था| चारों ओर से कर्ण की जय-जयकार होने लगी| दुर्योधन का चेहरा अर्जुन के प्रतिद्वंद्वी को देखकर खिल उठा| उसने उसे हृदय से लगा दिया| उसने उसे अर्जुन के साथ द्वंद्व युद्ध करने के लिए प्रेरित किया| दुर्योधन की बात मानकर उसने अर्जुन को इसके लिए चुनौती दी| अर्जुन द्वंद्व युद्ध के लिए तैयार हो गया| अब झगड़ा बढ़ने की आशंका थी, इसलिए कृपाचार्य ने बीच में हस्तक्षेप करते हुए कहा कि राजकुमार के साथ राजकुमार का ही द्वंद्व युद्ध हो सकता है| चूंकि कर्ण सूत के द्वारा पाले हुए हैं, इसलिए इनके गोत्र, कुल आदि का ठीक-ठीक पता न होने के कारण इनको अर्जुन से द्वंद्व युद्ध करने का अधिकार नहीं है|


बस यह ऐसी समस्या थी, जिसको कर्ण हल नहीं कर सकता था| वह हक्का-बक्का-सा अर्जुन का मुंह तारका रह गया| दुर्योधन को भी इससे धक्का लगा, क्योंकि कर्ण के द्वारा अर्जुन का मान चूर्ण करने की उसकी ही तो योजना थी| जब कर्ण इस दुविधा में पड़ा हुआ आगे अपने पैर नहीं बढ़ा सका तो दुर्योधन ने उसे राजाओं की श्रेणी में लाने के लिए अंग देश का राज्य दे दिया| राजा होने के नाते अब वह अर्जुन या अन्य किसी राजकुमार के साथ युद्ध कर सकता था| वह इसके लिए उतारू भी था, लेकिन संध्या होने के कारण यह वाद-विवाद थम गया और सब अपने-अपने घर चले गए|


बस फिर जीवन में सदा ही कर्ण अर्जुन से प्रतिद्वंद्वी के रूप में मिला| अर्जुन से ही उसकी विशेष रूप से शत्रुता थी| वह उसकी प्रसिद्धि को सह नहीं सकता था| अनेक स्थलों पर वह अर्जुन के सामने आया, लेकिन अपना कुल-गोत्र न बता सकने के कारण उसे सामने से हटना पड़ा| वह सूत-पुत्र कहलाता था, क्योंकि सूत ने ही उसको पाला था| इसी कारण द्रौपदी के स्वयंवर में भी घूमती मछली की आंख बेधने की सामर्थ्य रखते हुए भी उसको अवसर नहीं दिया गया| स्वयं द्रौपदी ने ही सूत-पुत्र कहकर उसका अपमान किया था और उसकी पत्नी बनने से इनकार कर दिया था| सूत-पुत्र को क्षत्रिय कन्या का वरण करने का अधिकार नहीं है - ये शब्द शूल की तरह उसके हृदय में चुभ गए थे और वह लहू के घूंट पीकर अपने स्थान पर आ बैठा था| लेकिन द्रौपदी के प्रति उसकी घृणा इतनी बढ़ गई थी कि भरी सभा में दु:शासन ने द्रौपदी को नंगा करना चाहा था, तो उसने इसका तनिक भी विरोध नहीं किया था, बल्कि द्रौपदी की हंसी उसने लड़ाई थी|


जब दुर्योधन के भाई विकर्ण ने कौरवों के इस घृणित व्यवहार की निंदा की थी तो कर्ण ने उससे कहा था, "विकर्ण ! तुम अपने कुल की हानि करने के लिए पैदा हुए हो| अधर्म-अधर्म तुम पुकार रहे हो, द्रौपदी के साथ जो भी व्यवहार किया जा रहा है वह ठीक है| वह दासी है और दासी के ऊपर स्वामी का पूरा अधिकार होता है|"


यह कहकर उसने द्रौपदी के द्वारा किए अपने अपमान का बदला चुकाया था| उस समय उसका हृदय पत्थर की तरह कठोर हो गया था| जैसे भी बन पड़ा उसने द्रौपदी का अपमान किया| उसे पांच पुरुषों की व्यभिचारिणी स्त्री कहा और हर तरह से उसे धिक्कारा| उस समय प्रतिशोध की आग में जलते हुए उसने उचित-अनुचित का विचार बिलकुल छोड़ दिया| द्रौपदी को नंगी देखने और दिखाने की उसकी इच्छा थी| इससे स्पष्ट होता है कि कर्ण प्रतिशोध की भावना के आगे सत्य, न्याय और धर्म की भावना को पूरी तरह भूल जाता था| यह उसके चरित्र की दुर्बलता ही है|


कर्ण स्वभाव से कुटिल भी था| वह दुर्योधन को इसी प्रकार कुचक्र रचने की सलाह दिया करता था, जैसी शकुनि देता था| जिस समय जुए में हारकर पाण्डव वनवास के लिए चले गए और द्वैत वन में वे अपना समय काट रहे थे, उस समय कर्ण और शकुनि की बातों में आकर ही दुर्योधन अपने परिवार के साथ पाण्डवों को चिढ़ाने के लिए पहुंचा था लेकिन यहां चित्रसेन नामक गंधर्व से इनका सामना हो गया| भीषण युद्ध हुआ| गंधर्व राजा ने अपने पराक्रम से सबको परास्त कर दिया और परिवार सहित सभी को उसने बंदी बना लिया| कर्ण तो अपने प्राण लेकर युद्धस्थल से भाग ही गया था| फिर युधिष्ठिर के कहने और अर्जुन के भी प्रयास करने पर चित्रसेन ने दुर्योधन आदि को मुक्त कर दिया|


कर्ण अहंकारी भी बहुत था| उसे अपने पराक्रम पर बड़ा घमंड था और बार-बार दुर्योधन को प्रसन्न करने के लिए वह कहा करता था कि वह एक क्षण में ही अर्जुन को मार गिराएगा| इसके लिए भगवान परशुराम द्वारा सिखाए हुए अपने अस्त्र-कौशल की दुहाई देता था| यहां तक कि भीष्म पितामह, गुरु द्रोणाचार्य आदि के सामने भी वह अपनी शेखी बघारने से बाज नहीं आता था|


एक दिन पितामह से न रहा गया| उन्होंने इसे फटकारते हुए कहा, "दुरभिमानी कर्ण ! व्यर्थ की बात क्यों किया करता है| खाण्डव दाह के समय श्रीकृष्ण और अर्जुन ने जो वीरता प्रकट की थी, उसको याद करके तुझे लज्जित होना चाहिए| क्या तू श्रीकृष्ण को साधारण व्यक्ति समझता है? वे अपने चक्र से तेरी उस अमोघ शक्ति को खंड-खंड कर देंगे| व्यर्थ दंभ करना एक सच्चे वीर का गुण नहीं है|"


पितामह की यह बात सुनकर कर्ण क्रुद्ध हो उठा और उसने झल्लाकर अपने शस्त्र फेंक दिए और कहा, "पितामह ने सभी के सामने मुझे लज्जित किया है, अब तो इनकी मृत्यु हो जाने पर ही मैं अपना पराक्रम दिखाऊंगा|"


इसी दुराग्रह के कारण जब तक भीष्म पितामह जीवित रहकर युद्ध करते रहे, कर्ण ने युद्ध में हाथ नहीं बंटाया| जब उसने सुन लिया कि वे धराशायी हो चुके हैं, उस क्षण प्रसन्न होकर वह दुर्योधन के पक्ष में आकर शत्रु से युद्ध करने लगा| गुरु द्रोण के पश्चात कौरव-सेना का तीसरा सेनापति वही था| इस वृत्तांत से यही स्पष्ट होता है कि वह अत्यधिक क्रोधी स्वभाव का था| सदा अहंकार में उसकी बुद्धि डूबी रहती थी और इस कारण बुद्धिमानों की बातें भी बुरी लगती थीं| इसके विपरीत अर्जुन धीर बुद्धि और विनयशील था|


इस सबके होते हुए भी कर्ण अपनी बात का धनी था| जो कुछ भी वचन वह दे देता था, उससे हटना तो वह जानता ही नहीं था| श्रीकृष्ण ने उसे यह बता दिया था कि वह कुंती का ज्येष्ठ पुत्र है और साथ में उन्होंने उससे पांडवों की ओर मिल जाने का आग्रह भी किया था, लेकिन सबकुछ सुनकर भी उसने दुर्योधन के साथ विश्वासघात करना उचित नहीं समझा|


श्रीकृष्ण ने कहा था, "कर्ण ! भाइयों के विरुद्ध लड़कर उनको मारने की कामना करना पाप है, इसलिए तुम कौरवों का साथ छोड़कर पाण्डवों का पक्ष ले लो| युधिष्ठिर तुम्हें अपना अग्रज मानकर अपना जीता हुआ साम्राज्य तुम्हें ही दे देंगे|"


कृष्ण की यह प्रलोभन भरी बातें सुनकर भी कर्ण अपने वचन पर दृढ़ रहा और कहने लगा, "श्रीकृष्ण ! दुर्योधन के साथ विश्वासघात करना सबसे बड़ा पाप है| यदि मैं उसकी मित्रता को तोड़कर पाण्डवों की ओर मिल जाऊंगा, तो सब यही कहेंगे कि कर्ण अर्जुन से डरकर उनकी ओर मिल गया है| फिर मैं ऐसा क्या करूं? मेरी मां ने तो मुझे मारने का सारा प्रबंध कर दिया था| सूत ने ही मुझे उठाया और पाला, इसलिए वे ही मेरे पिता तुल्य हैं| सूतों के साथ मैं कई यज्ञ भी कर चुका हूं और मेरा विवाह संबंध भी सूतों के परिवार में ही हुआ है, फिर मेरा पाण्डवों से क्या संबंध रहा? धृतराष्ट्र के घराने में ही दुर्योधन के आश्रित मैं रहा हूं| और तेरह वर्ष तक मैंने उन्हीं का दिया हुआ राज्य किया है, फिर कैसे उनके साथ विश्वासघात कर दूं? दुर्योधन को मेरे ऊपर पूरा विश्वास है| मेरे कहने से ही तो उसने इस युद्ध को मोल लिया है और अर्जुन के प्रतिद्वंद्वी के रूप में दुर्योधन की आशाएं मेरे ऊपर ही तो लगी हुई हैं| इस परिस्थिति में अपने आश्रयदाता और मित्र दुर्योधन को छोड़कर मैं कभी पाण्डव पक्ष में नहीं मिल सकता|


"फिर यदि एक बार मैं मिल भी गया तो युधिष्ठिर जो राज्य मुझे देगा उसे अपने वचन के अनुसार मुझे दुर्योधन को देना होगा| इससे तो पाण्डवों का सारा प्रयत्न ही निष्फल चला जाएगा| यह सभी कुछ सोच विचारकर मैं निश्चयपूर्वक कहता हूं कि मैं मित्र दुर्योधन का साथ छोड़कर और किसी पक्ष में नहीं मिल सकता, लेकिन हां यह वचन अवश्य देता हूं कि युद्ध में मेरा प्रतिद्वंद्वी केवल अर्जुन ही है| उसके सिवा किसी पाण्डव का वध मैं नहीं करूंगा|"


कर्ण का यह कथन उसके चरित्र की महानता पर प्रकाश डालता है| बात का कितना पक्का था वह दानवीर| दुर्योधन चाहे अधर्मी था, लेकिन उसका तो आश्रयदाता था, फिर वह उसके साथ छल-कपट कैसे कर सकता था? अंत तक उसने दुर्योधन का साथ दिया और अपने आपको एक सच्चा मित्र प्रमाणित कर दिया|


कर्तव्य के प्रति कर्ण पूरी तरह कठोर था| वह युधिष्ठिर तथा अर्जुन की तरह सहृदय नहीं था कि पांडवों के विषय में यह ज्ञात होते ही कि ये उसके भाई हैं, युद्ध करना बंद कर दे| एक बार मन में दृढ़ संकल्प करके उसको पूरी तरह निबाहना ही उसके जीवन का उद्देश्य था| दुर्योधन की सहायता करना उसका कर्तव्य था, इससे पाण्डवों के प्रति जाग्रत हुआ भ्रातृत्व भाव भी उसे विचलित न कर सका और फिर भी अर्जुन के प्रति कठोर और ईर्ष्यापूर्ण दृष्टि उसकी बनी ही रही| यहां तक कि स्वयं माता कुंती ने जाकर कर्ण को अपनी ओर मिलाने की इच्छा प्रकट की थी, लेकिन उस समय भी वह वीर अपने पथ से विचलित नहीं हुआ| यह उसके चरित्र की श्रेष्ठता ही थी| फिर एक बार कृष्ण को वचन देकर अर्जुन के सिवा अन्य किसी पाण्डव की ओर उसने शस्त्र नहीं उठाया| अर्जुन से ही युद्ध करते हुए वह वीरगति को प्राप्त हुआ था|


महाभारत युद्ध में भी उसकी वीरता देखकर स्वयं श्रीकृष्ण उसकी प्रशंसा करने लगे थे| कितनी ही बार वह अर्जुन के रथ को पीछे हटा देता था| जब तक वह सेनापति रहा, अर्जुन बार-बार उसके प्रहारों से विचलित हो उठता था| उसकी समझ में नहीं आता था कि वह कैसे इस परम योद्धा को परास्त करे|


अंत में पूरी तरह निराश होकर उसने कृष्ण की ओर देखा| कर्ण के रथ का पहिया जमीन में धंस गया था| वह उसे निकालने का प्रयत्न कर रहा था, उसी समय कृष्ण के इशारा करने पर अर्जुन ने अन्याय का आश्रय लेकर उसका वध किया, नहीं तो उस वीर को मारना बहुत कठिन था| फिर यदि उसके हाथ में इंद्र की वह अमोघ शक्ति होती तो फिर उसको कोई भी पराजित नहीं कर सकता था और यह निश्चय था कि वह अर्जुन का वध करके विजय का शंख फूंक देता, लेकिन विधाता की यही गति थी| अमोघशक्ति को वह पहले ही घटोत्कच पर चला चुका था| अब उसके पास विशेष अस्त्र कोई नहीं था| फिर भी बड़ी कठिनाई से अर्जुन उसे मार पाया था| महाभारत में जहां भी उसके पराक्रम का वर्णन आया है, वहां अर्जुन के बराबर ही उसको पराक्रमी माना गया है और था भी वह इतना ही पराक्रमी|


कर्ण के पराक्रम में धब्बा लगाने वाली एक बात यह है कि वह कपटी भी था| वह सदा सत्य और न्याय का ही आश्रय नहीं लेता था| उसने अल्प वयस्क राजकुमार अभिमन्यु का चक्रव्यूह के भीतर औरों के साथ मिलकर वध किया था| उसी ने उसके धनुष को काट गिराया था और फिर उस निहत्थे बालक पर छ: महारथियों ने मिलकर आक्रमण किया था, जिनमें से एक वह भी था| निहत्थे बालक की हत्या करने का अपराध सदा उसके चरित्र के साथ लगा रहेगा| इसीलिए इतना पराक्रमी होने पर भी कर्ण अर्जुन की तरह महापुरष की कोटि में नहीं आ सकता| उसका हृदय कलुषित था|


इस तरह कर्ण के चरित्र पर दृष्टिपात करने से मालूम होता है कि वह किसी दृष्टि से महान था और अपने किन्हीं व्यवहारों के कारण पतित भी था| उसकी महानता उसके दानवीर होने मैं है, उसके दृढ़ संकल्प होने में है, उसके अपने मित्र और आश्रयदाता के विश्वासपात्र होने में है, लेकिन छल और कपटपूर्ण व्यवहार, व्यर्थ का दंभ और क्रोध उसके चरित्र की गरिमा को कम करते हैं|


वह इतना पराक्रमी था कि उसके मरते ही दुर्योधन का सारा धैर्य टूट गया था और अब उसे अपनी पराजय की आशंका निश्चित लगने लगी थी| और वही हुआ भी| कर्ण की मृत्यु के पश्चात कौरव ऐना का विनाश हो गया| स्वयं दुर्योधन भी भीम के द्वारा मार डाला गया| युद्ध में पांडवों को विजय प्राप्त हुई|

No comments

Powered by Blogger.