MANGALVAR VRAT KATHA : मंगलवार व्रत कथा in Hindi
मंगलवार के व्रत की विधि
विधि :
सर्व सुख, रक्त विकार, राज्य सम्मान तथा पुत्र की प्राप्ति के लिए मंगलवार
का व्रत उत्तम है। इस व्रत में गेहूँ और गुड़ का ही भोजन करना चाहिए। भोजन
दिन रात में एक बार ही ग्रहण करना चाहिए। व्रत 21 सप्ताह तक करें। मंगलवार
के व्रत से मनुष्य के समस्त दोष नष्ट हो जाते हैं। व्रत के पूजन से के समय
लाल पुष्पों को चढ़ावें और लाल वस्त्र धारण करें। अंत में हनुमान जी की
पूजा करनी चाहिए। तथा मंगलवार की कथा सुननी चाहिए।
इक्कीस व्रतों के अथवा इच्छा पूर्ति होने
परे मंगलवार के व्रत का उद्यापन करें। उद्यापन के अन्त में इक्कीस
ब्राह्मणों को भोजन कराकर यथाशक्ति स्वर्णदान करें। आचार्य को
सामर्थ्यानुसार दक्षिणा देकर लाल बैल का दान करें फिर स्वयं भोजन करें।
मंगलवार के दिन स्वाति नक्षत्र हो तो उस दिन
प्रातः स्नानादि से निवृत्त होकर मंगलयंत्र का निर्माण करें या मंगल देव
की मूर्ति बनावें, मंगल की मूर्ति का लाल पुष्पों से पूजन करें, लाल वस्त्र
पहनावें और गुड़, घी, गेहूं के बने पदार्थों का भोग लगावें। रात्रि के समय
एक बार भोजन करें। पृथ्वी पर शयन करें, इस प्रकार मंगलवार का व्रत करें और
सातवें मंगलवार को मंगल की स्वर्ण की मूर्ति का निर्माण कर उसका पूजन
अर्चन करें, दो लाल वस्त्रों से आच्छादित करें, लाल चन्दन, षटगंध, धूप,
पुष्प, सदचावल, दीप आदि से पूजा करें, सफेद कसार का भोग लगावें। तिल, चीनी,
घी का सांकल्य बना कर ‘ओम कुजाय नमः स्वाहा’ से हवन करें। हवन और पूजा के
बाद ब्राह्मण को भोजन करावें और मंगल की मूर्ति ब्राह्मण को दक्षिणा में
दें तो मंगल ग्रह जनित सभी अनिष्टों की समाप्ति हो व्रत के प्रभाव से
सुख-शान्ति यश और ऐश्वर्य की वृद्धि होती है।
मंगलवार व्रत कथा -1
कथा : एक ब्राह्मण दंपति के कोई संतान न हुई थी, जिसके कारण
पति-पत्नी दुखी थे। वह ब्राह्मण हनुमान जी की पूजा के हेतु वन में चला गया।
वह पूजा के साथ महावीर जी से एक पुत्र की कामना प्रकट किया करता था। घर पर
उसकी पत्नी मंगलवार का व्रत पुत्र की प्राप्ति के लिए किया करती थी। मंगल
के दिन व्रत के अंत में भोजन बनाकर हनुमान जी को भोग लगाने के बाद स्वयं
भोजन ग्रहण करती थी। एक बार कोई व्रत आ गया। जिसके कारण ब्राह्मणी भोजन न
बना सकी। तब हनुमान जी का भोग भी नहीं लगाया। वह अपने मन में ऐसा प्रण कर
के सो गई की अब अगले मंगलवार को हनुमान जी का भोग लगाकर अन्न पानी ग्रहण
करुँगी।
वह भूखी प्यासी 6 दिन पड़ी रही। मंगलवार के दिन तो उसे मूर्छा आ गई तब
हनुमान जी उसकी लगन और निष्ठा को देखकर प्रसन्न हुए। उन्होंने उसे दर्शन
दिए,और कहा -“मैं तुमसे अति प्रसन्न हूँ। मैं तुझको एक सुंदर बालक देता
हूँ। जो तेरी बहुत सेवा करेगा।” हनुमान जी मंगलवार को बाल रूप में दर्शन
देकर अंतर्ध्यान हो गये। सुंदर बालक पाकर ब्राह्मण अति प्रसन्न हुई।
ब्राह्मणी ने बालक का नाम मंगल रखा।
कुछ समय पश्चात् ब्राह्मण वन से लौटकर आया। प्रसन्नचित्त सुन्दर बालक घर
में क्रीड़ा करते देखकर वह ब्राह्मण पत्नी से बोला -“यह बालक कौन है?” पत्नी
ने कहा -“मंगलवार के व्रत से प्रसन्न हो हनुमान जी ने दर्शन दे मुझे बालक
दिया है।” पत्नी की बात छल से भरी जान उसने सोचा यह कुल्टा व्याभिचारिणी
अपनी कलुषता छुपाने के लिए बात बना रही है। एक दिन उसका पति कुएँ पर पानी
भरने चला तो पत्नी ने कहा कि मंगल को भी साथ ले जाओ। वह मंगल को साथ ले चला
और उसको कुएँ में डालकर वापस पानी भरकर घर आया तो पत्नी ने पूछा कि मंगल
कहा है?
तभी मंगल मुस्कुराता हुआ घर आ गया। उसको देख ब्राह्मण आश्चर्य चकित हुआ,
रात्रि में उसके पति से हनुमान जी ने स्वप्न में कहा- “यह बालक मैंने दिया
है। तुम पत्नी को कुल्टा क्यों कहते हो। पति यह जानकर हर्षित हुआ। फिर
पति-पत्नी मंगल का व्रत रख अपना जीवन आनंदपूर्वक व्यतीत करने लगे। जो
मनुष्य मंगलवार की व्रत कथा को पढ़ता या सुनता है और नियम से व्रत रखता है।
उसके हनुमान जी की कृपा से सब कष्ट दूर होकर सर्व सुख प्राप्त होता है।
मंगलवार व्रत कथा -2
प्राचीन समय में कुण्डलपुर नामक एक नगर था, उसमें नन्दा नामक एक
ब्राह्मण रहता था। भगवान की कृपा से उसके पास सब कुछ था, फिर भी वह दुःखी
था। इसका कारण यह था कि ब्राह्मण की स्त्री सुनन्दा के कोई सन्तान न थी।
सुनन्दा पतिव्रता थी। भक्तिपूर्वक श्री हनुमान जी की आराधना करती थी।
मंगलवार के दिन व्रत करके अन्त में भोजन बना कर हनुमान जी का भोग लगाने के
बाद स्वयं भोजन करती थी। एक बार मंगलवार के दिन ब्राह्मणी गृह कार्य की
अधिकता के कारण हनुमान जी को भोग न लगा सकी, तो इस पर उसे बहुत दुःख हुआ।
उसने कुछ भी नहीं खाया और अपने मन में प्रण किया कि अब तो अगले मंगलवार को
ही हनुमान जी का भोग लगाकर अन्न-जल ग्रहण करूंगी।
ब्राह्मणी सुनन्दा प्रतिदिन भोजन बनाती, श्रद्धापूर्वक पति को खिलाती,
परन्तु स्वयं भोजन नहीं करती और मन ही मन श्री हनुमान जी की आराधना करती
थी। इसी प्रकार छः दिन गुजर गए, और ब्राह्मणी सुनन्दा अपने निश्चय के
अनुसार भूखी प्यासी निराहार रही, अगले मंगलवार को ब्राह्मणी सुनन्दा प्रातः
काल ही बेहोश होकर गिर पड़ी।
ब्राह्मणी सुनन्दा की इस असीम भक्ति के प्रभाव से श्री हनुमान जी बहुत
प्रसन्न हुए और प्रकट होकर बोले- सुनन्दा ! मैं तेरी भक्ति से बहुत प्रसन्न
हूं, तू उठ और वर मांग।
सुनन्दा अपने आराध्य देव श्री हनुमान जी को देखकर आनन्द की अधिकता से
विह्वल हो श्री हनुमान जी के चरणों में गिरकर बोली- ‘हे प्रभु, मेरी कोई
सन्तान नहीं है, कृपा करके मुझे सन्तान प्राप्ति का आशीर्वाद दें, आपकी अति
कृपा होगी।’
श्री महावीर जी बोले -‘तेरी इच्छा पूर्ण होगी। तेरे एक कन्या पैदा होगी
उसके अष्टांग प्रतिदिन सोना दिया करेंगे।’ इस प्रकार कह कर श्री महावीर जी
अन्तर्ध्यान हो गये। ब्राह्मणी सुनन्दा बहुत हर्षित हुई और सभी समाचार
अपने पति से कहा, ब्राह्मण देव कन्या का वरदान सुनकर कुछ दुःखी हुए, परन्तु
सोना मिलने की बात सुनी तो बहुत प्रसन्न हुए। विचार किया कि ऐसी कन्या के
साथ मेरी निर्धनता भी समाप्त हो जाएगी।
श्री हनुमान जी की कृपा से वह ब्राह्मणी गर्भवती हुई और दसवें महीने
में उसे बहुत ही सुन्दर पुत्री प्राप्त हुई। यह बच्ची, अपने पिता के घर में
ठीक उसी तरह से बढ़ने लगी, जिस प्रकार शुक्लपक्ष का चन्द्रमा बढता है।
दसवें दिन ब्राह्मण ने उस बालिका का नामकरण संस्कार कराया, उसके कुल
पुरोहित ने उस बालिका का नाम रत्नावली रखा, क्योंकि यह कन्या सोना प्रदान
किया करती थी, इस कन्या ने पूर्व-जन्म में बड़े ही विधान से मंगलदेव का
व्रत किया था।
रत्नावली का अष्टांग बहुत सा सोना देता था, उस सोने से नन्दा ब्राह्मण
बहुत ही धनवान हो गय। अब ब्राह्मणी भी बहुत अभिमान करने लगी थी। समय बीतता
रहा, अब रत्नावली दस वर्ष की हो चुकी थी। एक दिन जब नन्दा ब्राह्मण प्रसन्न
चित्त था, तब सुनन्दा ने अपने पति से कहा- ‘मेरी पुत्री रत्नावली विवाह के
योग्य हो गयी है, अतः आप कोई सुन्दर तथा योग्य वर देखकर इसका विवाह कर
दें।’ यह सुन ब्राह्मण बोला- ‘अभी तो रत्नावली बहुत छोटी है’ । तब
ब्राह्मणी बोली- ‘शास्त्रों की आज्ञा है कि कन्या आठवें वर्ष में गौरी, नौ
वर्ष में राहिणी, दसवें वर्ष में कन्या इसके पश्चात रजस्वला हो जाती है।
गौरी के दान से पाताल लोक की प्राप्ति होती है, राहिणी के दान से बैकुण्ठ
लोक की प्राप्ति होती है, कन्या के दान से इन्द्रलोक में सुखों की प्राप्ति
होती है। अगर हे पतिदेव! रजस्वला का दान किया जाता है तो घोर नर्क की
प्राप्ति होती है।’
इस पर ब्राह्मण बोला -‘अभी तो रत्नावली मात्र दस ही वर्ष की है और
मैंने तो सोलह-सोलह साल की कन्याओं के विवाह कराये हैं अभी जल्दी क्या है।’
तब ब्राह्मणी सुनन्दा बोली- ‘ आपको तो लोभ अधिक हो गया लगता है।
शास्त्रों में कहा गया है कि माता-पिता और बड़ा भाई रजस्वला कन्या को देखते
हैं तो वह अवश्य ही नरकगामी होते हैं।’
तब ब्राह्मण बोला-‘अच्छी बात है, कल मैं अवश्य ही योग्य वर की तलाश
में अपना दूत भेजूंगा।’ दूसरे दिन ब्राह्मण ने अपने दूत को बुलाया और
आज्ञा दी कि जैसी सुन्दर मेरी कन्या है वैसा ही सुन्दर वर उसके लिए तलाश
करो। दूत अपने स्वामी की आज्ञा पाकर निकल पड़ा। पम्पई नगर में उसने एक
सुन्दर लड के को देखा। यह बालक एक ब्राह्मण परिवार का बहुत गुणवान पुत्र
था, इसका नाम सोमेश्वर था। दूत ने इस सुन्दर व गुणवान ब्राह्मण पुत्र के
बारे में अपने स्वामी को पूर्ण विवरण दिया। ब्राह्मण नन्दा को भी सोमेश्वर
अच्छा लगा और फिर शुभ मुहूर्त में विधिपूर्वक कन्या दान करके
ब्राह्मण-ब्राह्मणी संतुष्ट हुए।
परन्तु! ब्राह्मण के मन तो लोभ समाया हुआ था। उसने कन्यादान तो कर
दिया था पर वह बहुत खिन्न भी था। उसने विचार किया कि रत्नावली तो अब चली
जावेगी, और मुझे इससे जो सोना मिलता था, वह अब मिलेगा नहीं। मेरे पास जो धन
था कुछ तो इसके विवाह में खर्च हो गया और जो शेष बचा है वह भी कुछ दिनों
पश्चात समाप्त हो जाएगा। मैंने तो इसका विवाह करके बहुत बड़ी भूल कर दी है।
अब कोई ऐसा उपाय हो कि रत्नावली मेरे घर में ही बनी रहे, अपनी ससुराल ना
जावे। लोभ रूपी राक्षस ब्राह्मण के मस्तिष्क पर छाता जा रहा था। रात भर
अपनी शैय्या पर बेचैनी से करवटें बदलते-बदलते उसने एक बहुत ही क्रूर
निर्णय लिया। उसने विचार किया कि जब रत्नावली को लेकर उसका पति सोमेश्वर
अपने घर के लिए जाएगा तो वह मार्ग में छिप कर सोमेश्वर का वध कर देगा और
अपनी लडकी को अपने घर ले आवेगा, जिससे नियमित रूप से उसे सोना भी मिलता
रहेगा और समाज का कोई मनुष्य उसे दोष भी नहीं दे सकेगा।
प्रातःकाल हुआ तो, नन्दा और सुनन्दा ने अपने जमाई तथा लडकी को बहुत
सारा धन देकर विदा किया। सोमेश्वर अपनी पत्नी रत्नावली को लेकर ससुराल से
अपने घर की तरफ चल दिया।
ब्राह्मण नन्दा महालोभ के वशीभूत हो अपनी मति खो चुका था। पाप-पुण्य
को उसे विचार न रहा था। अपने भयानक व क्रूर निर्णय को कार्यरूप देने के लिए
उसने अपने दूत को मार्ग में अपने जमाई का वध करने के लिए भेज दिया था ताकि
रत्नावली से प्राप्त होने वाला सोना उसे हमेशा मिलता रहे और वो कभी निर्धन
न हों ब्राह्मण के दूत ने अपने स्वामी की आज्ञा का पालन करते हुए उसके
जमाई सोमेश्वर का मार्ग में ही वध कर दिया। समाचार प्राप्त कर ब्राह्मण
नन्दा मार्ग में पहुंचा और रुदन करती अपनी पुत्री रत्नावली से बोला-‘हे
पुत्री! मार्ग में लुटेरों ने तेरे पति का वध कर दिया है। भगवान की इच्छा
के आगे किसी का कोई वश नहीं चलता है। अब तू घर चल, वहां पर ही रहकर शेष
जीवन व्यतीत करना। जो भाग्य में लिखा है वही होगा।’
अपने पति की अकाल मृत्यु से रत्नावली बहुत दुःखी हुई। करुण क्रन्दन व
रुदन करते हुए अपने पिता से बोली- ‘हे पिताजी! इस संसार में जिस स्त्री का
पति नहीं है उसका जीना व्यर्थ है, मैं अपने पति के साथ ही अपने शरीर को जला
दूंगी और सती होकर अपने इस जन्म को, माता-पिता के नाम को तथा सास-ससुर के
यश को सार्थक करूंगी।’
ब्राह्मण नन्दा अपनी पुत्री रत्नावली के वचनों को सुनकर बहुत दुःखी
हुआ। विचार करने लगा- मैंने व्यर्थ ही जमाई वध का पाप अपने सिर लिया।
रत्नावली तो उसके पीछे अपने प्राण तक देने को तैयार है। मेरा तो दोनों तरफ
से मरण हो गया। धन तो अब मिलेगा नहीं, जमाई वध के पाप के फलस्वरूप यम यातना
भी भुगतनी पड़ेगी। यह सोचकर वह बहुत खिन्न हुआ।
सोमेश्वर की चिता बनाई गई। रत्नावली सती होने की इच्छा से अपने पति का
सिर अपनी गोद में रखकर चिता में बैठ गई। जैसे ही सोमेश्वर की चिता को अग्नि
लगाई गई वैसे ही प्रसन्न हो मंगलदेव वहां प्रकट हुए और बोले-‘हे रत्नावली!
मैं तेरी पति भक्ति से बहुत प्रसन्न हूं, तू वर मांग।’ रत्नावली ने अपने
पति का जीवनदान मांगा। तब मंगल देव बोले-‘रत्नावली! तेरा पति अजर-अमर है।
यह महाविद्वान भी होगा। और इसके अतिरिक्त तेरी जो इच्छा हो वर मांग।’
तब रत्नावली बोली- ‘हे ग्रहों के स्वामी! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो
मुझे यह वरदान दीजिए कि जो भी मनुष्य मंगलवार के दिन प्रातः काल लाल
पुष्प, लाल चन्दन से पूजा करके आपका स्मरण करे उसको रोग-व्याधि न हो,
स्वजनों का कभी वियोग न हो, सर्प, अग्नि तथा शत्रुओं का भय न रहे, जो
स्त्री मंगलवार का व्रत करे, वह कभी विधवा न हो।”
मंगलदेव -‘तथास्तु’ कह कर अन्तर्ध्यान हो गये।
सोमेश्वर मंगलदेव की कृपा से जीवित हो उठा। रत्नावली अपने पति को पुनः
प्राप्त कर बहुत प्रसन्न हुई और मंगल देव का व्रत प्रत्येक मंगलवार को करके
व्रतराज और मंगलदेव की कृपा से इस लोक में सुख-ऐश्वर्य को भोगते हुए अन्त
में अपने पति के साथ स्वर्ग लोक को गई।
॥इति श्री मंगलवार व्रत कथा॥
मंगलिया की कथा
एक बुढ़िया थी, वह मंगल देवता को अपना इष्ट देवता मानकर सदैव मंगल का
व्रत रखती थी और मंगलदेव का पूजन किया करती थी। उसका एक पुत्र था जो
मंगलवार को उत्पन्न हुआ था। इस कारण उसको मंगलिया के नाम से बोला करती थी।
मंगलवार के दिन न तो घर को लिपती और न ही पृथ्वी खोदा करती थी।
एक दिन मंगल देवता उसकी श्रद्धा की परीक्षा लेने के लिए
उसके घर में साधु का रूप बनाकर आये और द्वार पर आवाज दी। बुढ़िया ने कहा
महाराज क्या आज्ञा है ? साधु कहने लगा कि बहुत भूख लगी है, भोजन बनाना है।
इसके लिए तुम थोड़ी सी पृथ्वी लीप दो तो तुम्हारा पूण्य होगा। यह सुनकर
बुढ़िया ने कहा महाराज आज मंगलवार की व्रती हूँ इसलिए मैं चौका नहीं लगा
सकती कहो तो जल का छिड़काव कर दूँ। उस पर भोजन बना लें।
साधु कहने लगा कि मैं गोबर से लिपे चौके पर खाना बनाता
हूँ। बुढ़िया ने कहा पृथ्वी लीपने के सिवाय और कोई सेवा हो तो मैं सब कुछ
करने के वास्ते उद्यत हूँ तब साधु ने कहा कि सोच समझकर उत्तर दो जो कुछ भी
मैं कहूँ सब तुमको करना होगा। बुढ़िया कहने लगी कि महाराज पृथ्वी लीपने के
अलावा जो भी आज्ञा करेंगे उसका पालन अवश्य करुँगी। बुढ़िया ने ऐसे तीन बार
वचन दे दिया।
तब साधु कहने लगा कि तुम अपने लड़के को बुलाकर औंधा लिटा
दे मैं उसकी पीठ पर भोजन बनाऊंगा। साधु की बात सुनकर बुढ़िया चुप गई। तब
साधु ने कहा -“बुला ले लड़के को, अब सोच-विचार क्या करती है ?” बुढ़िया
मंगलिया,मंगलिया कहकर पुकारने लगी। थोड़ी देर बाद लड़का आ गया। बुढ़िया ने कहा
-“जा बेटे तुझको बाबाजी बुलाते है।” लड़के ने बाबाजी से जाकर कहा- “क्या
आज्ञा है महाराज?” बाबाजी ने कहा कि जाओ अपनी माताजी को बुला लाओ। तब
माता आ गई तो साधु ने कहा कि तू ही इसको लिटा दे। बुढ़िया ने मंगल देवता
का स्मरण करते हुए लड़के को औंधा लिटा दिया और उसकी पीठ पर अंगीठी रख दी।
कहने लगी कि महाराज अब जो कुछ आपको करना है कीजिए, मैं जाकर अपना काम करती
हूं। साधु ने लड़के की पीठ पर रखी हुई अंगीठी में आग जलाई और उस पर भोजन
बनाया। जब भोजन बन चुका तो साधु ने बुढ़िया से कहा कि अब अपने लड़के को
बुलाओ वह भी आकर भोग ले जाये। बुढ़िया कहने लगी कि यह कैसे आश्चर्य की बात
है कि उसकी पीठ पर आप ने आग लगाई और उसी को प्रसाद के लिए बुलाते हैं क्या
यह संभव है कि अब भी आप उस को जीवित समझते हैं। आप कृपा करके उसका स्मरण भी
मुझ को न कराइए और भोग लगाकर जहां जाना हो जाइए।
साधु के अत्यंत आग्रह करने पर बुढ़िया ने ज्यों ही मंगलिया कहकर आवाज लगाई
त्यों कि एक ओर से दौड़ता हुआ वह आ गया। साधु ने लड़के को प्रसाद दिया और
कहा कि माई तेरा व्रत सफल हो गया। तेरे हृदय में दया है और अपने इष्टदेव
में अटल श्रद्धा है इसके कारण तुमको कभी कोई कष्ट नहीं पहुंचेगा।
मंगलवार व्रत की आरती
आरती किजे हनुमान लला की | दुष्ट दलन रघुनाथ कला की ॥
जाके बल से गिरवर काँपे | रोग दोष जाके निकट ना झाँके ॥
अंजनी पुत्र महा बलदाई | संतन के प्रभु सदा सहाई ॥
दे वीरा रघुनाथ पठाये | लंका जाये सिया सुधी लाये ॥
लंका सी कोट संमदर सी खाई | जात पवनसुत बार न लाई ॥
लंका जारि असुर संहारे | सियाराम जी के काज सँवारे ॥
लक्ष्मण मुर्छित पडे सकारे | आनि संजिवन प्राण उबारे ॥
पैठि पताल तोरि जम कारे| अहिरावन की भुजा उखारे ॥
बायें भुजा असुर दल मारे | दाहीने भुजा सब संत जन उबारे ॥
सुर नर मुनि जन आरती उतारे | जै जै जै हनुमान उचारे ॥
कचंन थाल कपूर लौ छाई | आरती करत अंजनी माई ॥
जो हनुमान जी की आरती गाये | बसहिं बैकुंठ परम पद पायै ॥
लंका विध्वंश किये रघुराई | तुलसीदास स्वामी किर्ती गाई ॥
आरती किजे हनुमान लला की | दुष्ट दलन रघुनाथ कला की ॥
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